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खबरें खास:


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मंगलवार, 7 जून 2011

अभिलाषा











मां खादी की चादर दे दे मै बाबा बन जाऊं।
सब लोगो के बीच बैठ कर भष्ट्राचार मिटाऊ
इस देश के बच्चों को अनुलोम-विलोम सिखाऊं
काला धन वापस लाकर मै अपना भूख मिटाऊ
मां खादी की चादर दे दे मै बाबा बन जांऊ।
रामलीला मैदान में जाकर लाठी-वाठी खांऊ
बीच-बीच में माईक पकड़कर जोर-जोर चिल्लाऊ
नेताओ को खत लिखकर मै अपना जान बचाऊं
मां खादी की चादर दे दे मै बाबा बन जाऊ।
गोली-चूरन खिला खिला कर सब को चू#$@या बनाऊं
स्काटलैंड में टापू खरीदकर मै अपना राज फैलाऊ
योगासन की आड़ में मै भाषण ज्यादा पिलाऊ
मां खादी की चादर दे दे मैं बाबा बन जाऊं।

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रविवार, 12 सितंबर 2010

मेरी प्यारी हिन्दी,मुझे माफ करना

 चल रे मटकी टम्मक टू .... को  जॉनी जॉनी यस पापा..... के सामने न जाने कितनी दफा शर्मिंदा होना पड़ा , अ-अनार के सामने ए-ऐपल्ल का, हमेशा से ही भारी पड़ा , पर राष्ट्रभक्त और हिन्दी प्रेम मे मदहोश मेरे माता-पिता ने इसी अ- अनार के सहारे दुनिया फतह करने के लिए सरकारी हिन्दी माध्यमों के स्कुल में मुझे झोंक दिया,बिना ये अंदाजा लगाए आने वाले समय मे उनका ये राष्ट्रप्रेम मेरे भविष्य के सामने सबसे बड़ा रोडा बनकर सामने आऐगा । किसी समारोह दौरान बचपन में याद कि गई हिन्दी कविता अंग्रेजी पोयम के सामने ठीक उसी तरह बेचारगी महसूस करता था जैसे कुछ वर्षो पहले हिंदुस्तान के लोग अंग्रेजो के सामने करते रहे होंगे ।      
बचपन से ही सरकारी स्कुलों मे पढने वाले बच्चे अंग्रेजी में गिटर-पिटर करने वाले बच्चो के सामने हमेशा से ही हीनभावना ही रखते थे,उन्हीं में से एक मै भी था मुझे याद है जब मै सरकारी और तुच्छ समझे जाने वाली हिन्दी मीडियम के स्कुलो में पढ़ता था तब अंग्रेजी स्कुलो के लड़के-लड़कियां मुझे गैरत भरी निगाह से देखा करते थे , बस्तें मे हिन्दी माध्यम कि किताबे अपने को अपमानित सा महसूस करती थी,जिसका बोझ मै हमेशा महसूस करता था । वाट इज यूवर नेम... माई नेम इज.....  वाट इज यूवर फादर नेम.... माई फादर नेम इज... जैसे दो चार शब्द अंग्रेजी का आना अपने आप में हमें कभी कभी गौरवान्वित होने का मौका अवश्य देता था ,पर ज्यादा कुछ ऊपर नीचे होने पर शर्मिंदा भी होना पड़ता था । पड़ोसियों द्वारा मुझे किसी अंग्रेजी स्कुल में दाखिले कि बात मेरे हिन्दी प्रेमी देशभक्त माता-पिता को हमेशा नागवार ही गुजरती थी ।
हमारे स्कुलों में महात्मा गांधी जंयती ,चाचा नेहरु,गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस जैसे  कार्यक्रमो के अलावा कुछ नही था जिसका अफसोस हमे तब होता जब पड़ोस में रहने वाले अंग्रेजी मे गिटर-पिटर करने वाले बच्चे फादर्स डे, मदर्स डे टीचर्स डे, फलाना डे , ढेकाना डे अमका डे, ढमका डे.. और न जाने कौन कौन सा डे आए दिन मनाते देखते थे । बचपन से ही हम कही से अचानक मिली अंग्रेजी अख़बारों का उपयोग रंगीन तस्वीर देखने या फिर अपनी हिन्दी किताबों पर जिल्द चढ़ाने के लिए ही किया करते थे , इन अख़बारों में अर्धनग्न नायक नायिकाओं के रंगीन तस्वीर मेरे लिए ख़ास आकर्षण का केन्द्र रहती थी,जिसे अक्सर मै सलीके से काटकर हिन्दी के किताबों के बीच रख लेता था, जिसे स्कुल में ले जाकर अपने मित्रों को दिखाकर अपनी वाह-वाही लूटा करता था, इससे ज्यादा का उपयोग मेरे समझ से परे था, क्योकि मै हिन्दी राष्ट्र का सच्चा हिन्दीप्रेमी छात्र जो था ।
अंग्रेजी माध्यम में पढ़ने वाली लड़कियां मेरे लिए सबसे आकर्षण का केन्द्र हुआ करती थी,अंग्रेजी में गिटर-पिटर करना और उनके छोट-छोटे स्कर्ट मुझे हमेशा उनके मोहपाश में बंधे रहने को मज़बूर किया करती थी,मुझे जैसे हिन्दी मिडियम वाले लड़के को देखकर उनके भौवें सिकोड़ना आम बात थी, यही वह समय होता था जब लगता था कि अ-अनार को छोड़कर ए-एप्पल का दामन थाम लूं ,पर माता-पिता की इच्छा के विपरीत ये सोचना भी मेरे लिए किसी गुनाह से कम नही था,ये अलग बात है कि आज विदेशो में बच्चे अपने माता-पिता को छोटी-छोटी बातों पर कोर्ट कचहरी तक खीच लाते है ।
आई लव यूयही एकमात्र अंग्रेजी का शब्द था जिसने मुझे अपने बचपन से किशोरावस्था में प्रवेश करते समय बहुत साथ दिया । तरह-तरह से आई लव यू बनाना मेरे दिनचर्या में शुमार हो गया था । हिन्दी में मै तुमसे प्यार करता हू की जगह अंग्रेजी में आई लव यू...लिखने में मै गौरान्वित महसूस करता था और अपनी हिन्दीभाषी प्रेमिका पर भी रौब जमाता था। धीरे धीरे मै दुनियादारी के रंग से परिचित होने लगा , मेरी कई सालो की हिन्दी प्रेम की तपस्या का मोहपाश धीरे-धीरे भंग होने लगा , पढ़ाई लिखाई से बाहर निकल जब नौकरी चाकरी की बात आई तब हिन्दीप्रेम कही काम नही आया , नौकरी के लिए आवेदन लिखने से लेकर साक्षात्कार तक सभी जगह ए-फार-एप्पल ने मुझे नकारा साबित करने में कोई कसर नही छोड़ी ,मुझे अपने अ-अनार प्रेम से चीढ़ होने लगी थी, राष्ट्रभाषा , राष्ट्रप्रेम ये मुझे अब अपने सबसे बड़े दुश्मन लगने लगे । नौकरी के लिए जहां जाता किसी न किसी रुप में ए-फार-एप्पल रुपी दानव प्रकट हो जाता और मुझे हर संभव चिढ़ाने की कोशिश करता ।
सब तरफ ए-एप्पल वालो की ही भरमार थी अ-अनार तो बेचारा कुंठित अपने मौत का इंतजार कर रहा है पर उसे सहानुभूति रुपी वेंटीलेटर पर रखकर मरने भी नही दिया जा रहा है , हर कोई सिर्फ और सिर्फ उसके नाम और काम का फायदा उठाने में लगे हुए है, ये वही पल था जब पहली बार मुझे अपने हिन्दीप्रेमी होने का सबसे ज्यादा दुःख होने लगा था , मुझे समझ नही आ रहा था कि इतने वर्षो मैने इस हिन्दीवादी राष्ट्र में हिन्दी की सेवा क्यो कि क्यो उसे अंगीसार किए रखा ? , यही उलाहना भरे पल देखने के लिए ?
पर अब मुझे समझ आ गया है कि हिन्दी प्रेम से काम नही बनने वाला , हिन्दी राष्ट्र में हिन्दी तिल-तिल कर मर रहा है और बाजारीकरण के इस युग में डूबते सुरज को कोई सलाम नही करता , फिर मै क्यो पीछे रहूं । अब मै अपने परिचितो को आप कैसे है कि जगह हाऊ आर यू कहने लगा हुं , दोस्तो मित्रो को नमस्कार की जगह हाय.. बाय.. ओ शिट, स्वारी,प्लीज जैसे शब्दों का उपयोग करने लगा हूं शायद इन सब से काम बन जांए और मै भी विकास की धारा मे ए-एप्पल की सहारे वैतरणी पार कर लूं । आज पहली बार मैने आपने पिताजी को फोन पर पापा कह कर संबोधित किया , उधर से जबाव आया ... यहां कोई पापा नही रहता....?

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शनिवार, 17 जुलाई 2010

कुछ करो पवार साहब !






देश को है आई पी एल से ज्यादा बी पी एल सुविधाओं की दरकार









अनाज को तरसते को गरीब


हिंदुस्तान को किसी ज़माने में सोने की चिड़िया कहा जाता था ऐसा अक्सर हम बचपन से सुनते आए है और किताबों में भी पढ़ते आए है पर आज के हिंदुस्तान का असली चेहरा पूरे विश्व के सामने है दो जून की रोटी के लिए रोज़ संघर्ष करने वालो की संख्या विश्व के किसी देश के मुकाबले हिंदुस्तान में सबसे अधिक है इसके आठ राज्यों में सबसे ज्यादा 42 करोड़ गरीब लोग बसते है, जहां किसी ज़माने में अपने लोगो को दो जून की रोटी दिलाने के लिए ख़ैरात के तौर पर अमेरिका से घटिया लाल गेहूं लिया जाता था वही आज अपने खून पसीने अपने ही देश में पैदा हुआ उम्दा गेहूं कुडे में पड़ा सड़ने रहा है और दूसरी ओर इसी की तलाश में गरीब लोग अपना घर द्वार छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर फुटपाथ पर नरकीय जीवन बिताने को मजबूर है पर हैरानी की बात ये है कि इसके बावजूद कृषि प्रधान देश के कृषि मंत्री जो आजकल क्रिकेट मंत्री के तौर पर ज्यादा जाने-पहचाने जाते है माननीय शरद पवार साहब को ये समस्या अभी भी क्रिकेट की समस्याओं के मुकाबले कमतर ही लगती है  
एफ सी आई गोदामों मे सड़ता अनाज
इससे बडी विडम्बना और क्या होगी कि कृषि प्रधान देश में हर साल 20 हजार टन गेहूं गोदामों मे रखा रखा ही सड़ जाता हो, ऐसा सरकारी तौर पर माना जाता है पर गैर सरकारी तौर पर माने तो ये आँकड़ा 1 लाख टन गेहूं से भी अधिक है ये आँकड़े उस समय हमें ज्यादा चिढ़ाते हुए नज़र आते है जब हमारे देश के 8 राज्यों के गरीब आफ्रिका के 26 देशो की ग़रीबों की तुलना में कही ज्यादा है,बिहार. झारखंड, मध्यप्रदेश, उड़ीसा, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल में 42 करोड़ से ज्यादा लोग बसते है जबकि आफ्रिका के 26 सबसे गरीब देशो की तादाद महज 41 करोड़ ही है हमारे इन्हीं 8 राज्यों में भारत के आधे से ज्यादा और पुरी दुनिया के एक तिहाई से ज्यादा गरीब लोग रहते है ऐसे में देश की 37 फीसदी आबादी याने की तकरीबन 9 करोड़ परिवार ग़रीबी रेखा के नीचे याने बीपीएल योजना के तहत आते है इनमें से तकरीबन 2 करोड़ 50 लाख परिवार अत्यंत गरीब है जिन्हें जीवन यापन के लिए अन्त्तोदय योज़ना के तहत 2 रुपये किलो गेहूं और 3 रुपये किलों मे चावल सरकार मुहैया कराती है, इस सब के लिए सरकार द्वारा प्रतिवर्ष तकरीबन 1 करोड़ 70 लाख टन अनाज जारी किया जाता है ये उन खुदकिस्मत गरीबो के लिए है जिनका नाम सरकारी आंकड़ो में दर्ज है पर वे करोड़ो गरीब न तो जिनके पास कोई कार्ड है और न ही किसी फाइलों या योजनाओं में उनका नाम है वे आज भी इस बेतरतीब मंहगाई में अनाज खरीदकर खाने के लिए मज़बूर है पर सबसे बड़ा सवाल ये है कि वे इसे खरीदे तो खरीदे कैसे इसके लिए उनके पास पैसे ही नही है ।
दूसरी ओर देश के अनाज का भंडारण करने वाली सरकारी एजेंसियों और एफ सी आई के गोदामों में लाखों करोड़ो टन अनाज पड़ा सड़ रहा है एफ सी आई के अधिकारी इन्हें भंडारण की समस्या मानकर अपना पल्लू झाड़ने में लगे रहते है। कृषि मंत्री पवार साहब की माने तो अभी स्थिति काबू में है देश में सिर्फ 0.3 प्रतिशत अनाज ही सड़ने की स्थिति में है पर ये आंकड़े अफसरों के द्वारा घालमेल कर फाईलों में बनाएं जाते है वस्तुस्थिती इसके काफी विपरीत है अफ़सर इस आंकड़े की कभी भी 0.5 से ज्यादा फाईलो में बढ़ने नही देते जिनके चलते उनपर किसी प्रकार की कार्यवाही हो सके,रही बात सड़े गले आनाजों की तो उन्हें फिर से बोरों में भरकर उन करोड़ो गरीब लोगो के लिए भेज दिया जाता है जो सरकारी रहमों करम पर अपने पेट की आग बुझाने के लिए मजबूर रहते है
विश्वपटल पर सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनने के ख्वावों में डूबें देश का वर्तमान हालात क्या इसे कभी हकीक़त के धरातल पर ला पाएंगी । हिंदुस्तान एक कृषि प्रधान देश है यहा कि अर्थव्यवस्था पुरी तरह कृषि पर ही निर्भर रहती है ऐसे में सरकारी अव्यवस्थाओं के चलते देश के अन्नदाता के खून पसीने से उपजे अनाजों की इस हालात का रोना कौन रोऐंगा, निश्चित तौर पर परोक्ष रुप से इसका असर अन्नदाताओं पर अवश्य पड़ेगा। ग़रीबों का क्या वे तो सरकार के रहमों करम पर ही अपना जीवन यापन करने को मजबूर है और लगभग आगे भी रहेंगें । इसे विडम्बना नही तो और क्या कहेंगें की एक तरफ तो गोदामों में अनाजों के ढेर सड़ने को मज़बूर है और दूसरी ओर इन्हीं अनाजों के लिए टकटकी बांधे गरीब तिल-तिल भूखों मरने को विवश है
हालात काबू में है और,प्लीज मीडिया इसे ज्यादा तूल न दे ... ये बयान है खेत खलिहानो से दूर क्रिकेट के मैदान पर चियर्सगल्रर्स के ठुमकों का आंनद उठाने में ज्यादा मसगूल रहने वाले हमारें देश के कृषि मंत्री श्री शरद पवार साहब का । देश की कृषि नीति से ज्यादा क्रिकेट नीति की ओर इनका ज्यादा रुझान रहता है इनकी माने तो देश में हालात अभी काबू में है और स्थितीयां पहले से बेहतर हो रही है पर असली चेहरा तो देश की इन आठ राज्यों के किसी भी गांवो कस्बों मे जाकर आसानी से देखा जा सकता है जिन्हें आज भी आई पी एल से ज्यादा बी पी एल की सुविधाओं की ज़रुरत है।

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शुक्रवार, 2 जुलाई 2010

इट्ज ओनली हेप्पन इन इंडिया



लो एक और इंसान का जीते जी एक और मंदिर बन कर तैयार है हमारी भावी पीढ़ी नारियल फुल माला ले कर इस मंदिर के घंटा बजाकर न जाने कौन-कौन सा वरदान मांगे ? धन्य है भारतनगरी ? और धन्य है यहां रहने वाले? यहा ये सवाल उठना लाज़मी है कि जिस निर्विकार को हम कभी पत्थर,कभी पेड़ तो कभी पानी के रुप में पुजते है वहा एक जीते जागते इंसान की मुर्ति स्थापित कर उसे पुजने में भला हर्ज ही क्या है ये बात तमिलनाडु के जिला पंचायत सलाहकार जी आर कृष्णमूर्ति अच्धि तरह समझते है तभी तो उन्होंने तामिलनाडु के गुदियाथम के पास लाखों रुपयें खर्च कर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री और द्रमुक अध्यक्ष एम.करुणानिधि का एक विशालकाय मंदिर बनवाया है वे देश के नागरिको की नब्ज़ अच्छि तरह से समझते है उन्हें मालुम है कि हर तरह से परेशान लोग अपनी समस्या का निदान पाने के लिए आखिर में मंदिर का ही रुख करते है यही उनके हर दुखों से मुक्ति मिलती है फिर क्यों न मंदिर बनवाया जाए इस तरह से उन्होंने अपनी स्वामी भक्ति और आम जनता के प्रति अपना जिम्मेंदारी दोनो का इमानदारी से निर्वहन किया है  ।
वैसे भी हमारे देश मे महापुरषों का मंदिर बनवाने की परंपरा बरसो से चली आ रही है चाहे फिल्म अदाकार रजनीकांत की बात हो या अमिताभ बच्चन की इनका मंदिर आपको अवश्य मिल जाऐंगा फिर राजनीति के किरदार क्यों पीछे रहे, भाई इनका भी तो हक है कि अपने मुर्तियों के आगे धुपबत्ती जलवाएं। इतिहास गवाह है जो भी महापुरुष की श्रेणी में आता है हम तो या उसके नाम से चौराहा बना देते है रोड का नामकरण कर देते है जिले का नाम उसके नाम पर रखते है या हितकारी योजनाओ में इनका नाम जोड देते है इस पर हम इतना ईमानदार और कर्तव्यपरायण रहते है कि इसमे जरा सी भी गलती हम स्वीकार नही कर सकते ये हमारी देश की प्रति वफादारी और हमेशा जागरुक रहने का एक सशक्त उदाहरण है पिछले दिनों की ही बात ले लिजीए उत्तरप्रदेश सरकार ने अमेठी को जिला बना कर इसका नाम दलित महापुरुष छत्रपति शाहूजी महाराज पर रख दिया अब भला ये बात पिछले कई वर्षो तक राज करने वाले कांग्रेस को कैसे रास आ सकता था । इसकी वजह भी साफ है । अमेठी दरअसल नेहरु गांधी परिवार के सियासी पहचान का अहम हिस्सा बन चुका है इसलिए ये मांग उठ रही है कि इस जिले का नाम महापुरुष राजीव गांधी के नाम पर हो । अब कोई भला ये कैसे स्वीकार कर सकता है कि जिस इलाके को जगह गांधी परिवार का गढ़ माना जाए जाता है उस इलाके का नाम किसी और के नाम पर हो।
खैर मैडम मायावती इस मामले में को सियासी तौर पर देखना बिल्कुल पंसद नही करती उनका मानना है कि महापुरुष सिर्फ स्वर्णवर्ग से नही आते दलित समुदाय को भी देश के चौराहो में , सड़को मे , योजनाओं में ,जिलो में अपना नाम जुडवाने का पुरा अधिकार है माननीय काशीराम के नाम पर करोडो रुपये पार्को और मूर्तियों पर खर्च कर मायावती यही जताना चाहती है । पर हमें इन सब को सियासी चश्मों से नही देखना चाहिए हम तो एक आम मतदाता है हम तो एक सीधे साधे भक्त की तरह है जिन्हें मंदिर में रखे भगवान के प्रति आगाध आस्था रहती है हमे इस बात से कोई मतलब नही रहता कि इस मंदिर का निर्माण किसने करवाया है।
कई शहरों का नाम भी आए दिन बदलते रहते है पुराने डायरी में लिखे कई रिश्तेदारों के पते पर लिखे शहरो के नामो पर कई बदलाव करने पडते है बंबई से मुंबई ,बंगलौर से मैंगलोर और न जाने क्या क्या, कइयो के तो कई बार मुहल्लों चौराहो तक के नाम बदलने पड़ते है ये सिलसिला कब रुकेंगा कह पाना जरा मुश्किल है मजे की बात ये है कि किसी जगह, रोड, चौराहो, संस्थानो के किसी भी नाम पर आम जनता को आज तक किसी प्रकार की कोई तकलीफ नही होती और न ही आज तक इसको लेकर कोई विरोध हुआ हो ऐसा भी देखने में नही आता,पर सियासी तौर पर ये बहुत मायने रखती है नाम,समुदाय और वोटबैक की राजनीति ही इन्हें ऐसा करने को मजबूर करती है किसी पार्टी के सत्ता में ही आते ही धडाधड पार्टी महापुरुषों के नाम की राजनीति शुरु हो जाती है सडको , चौराहो पर इन महापुरुषों की विशालकाय मूर्तिया मुस्कराते हुए दिखने लगती है पर आम जनता को इससे कोई सरोकार नही होता उनके लिए तो महापुरुष महापुरुष ही रहते है उन्हें इस बात का जरा भी इल्म नही रहता कि फला महापुरुष के नाम पर उसके मोहल्ले का नाम क्यो रखा गया ।
नाम की राजनीति का इतिहास हमारे देश में कोई नया नही है इतिहास गवाह है कि इस तरह के काम आए दिन होते रहते है और इससे देश के स्वास्थ्य पर कोई असर नही पड़ता,असर पड़ता है तो जात-पात कि राजनीति करने वाले राजनीतिक पार्टियों पर जिनके पैरोकार इन्ही के बदौलत अपनी राजनीतिक रोटीयां सेकते आए है और आगे भी सेकते रहेंगें ।

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सोमवार, 7 जून 2010

आखिर कब सुधरेंगे हम ?










हम विकसित होने के चाहे लाख दावें कर लें लेकिन आज भी समाज के अंदर वो कुरितियां भरी पड़ी हैं जो सभ्य समाज के नाम पर कलंक हैं और कही न कही हमे विश्वमंच पर अपनी छबि सुधारने के दुरास्वप्न से जागने को मजबूर कर देती है पूरे देश में अमूमन हर दिन एक न एक घटना ऐसे होती ही है जिससे मानवता शर्मसार हुए बिना नही रह सकती. 21 वीं सदीं के ख्वाबों में डूबे देश के दूरदराज के पिछड़े अंचलों में टोनही (डायन) घोषित करके महिलाओं को सरेआम जलील करने जादू-टोना का आरोप लगाकर महिलाओं को निर्वस्त्र कर गांव में घुमाऐं जाने की घटना अंधविश्वास मिटाने के सारे आंकडो पर भारी पडते दिखाई देते है.

      गांव से लेकर शहरों तक अन्धविश्वास बहुत गहरे पैठा बना चुका है बुरी नज़र, जादू मंत्र आदि होता है, एक किरदार जो हमारे देश में पाया जाता है, उसे क्षेत्रवार- टोनही, टूणी, डाकण, जादू टोना करने वाली औरत के नाम से जाना जाता है. इस अज्ञात भय से लोग डरे रहते हैं कि हमारा और हमारे बच्चे का अनिष्ट हो जायेगा, इसको टोनही खा जायेगी. हमारे काम-धंधे-नौकरी में कुछ व्यवधान आ जायेगा,ऐसे ही क्षेत्रों में मेरा बचपन बीता है जहां गांव-गांव में टोनही, चुडैल, ओझा,बैगा, गुनियां न जाने कितने ही नामों से मेरा सामना अक्सर हुआ करता था,मुझे अच्छी तरह याद है कि जब भी कुछ बीमारी मुझे घेरा करती थी मेरी दादी डॉक्टर के यहां जाने से पहले किसी तांत्रिक के यहा जाने को तरजीह देती थी,किसी बुरी आत्मा का डर या बुरी साया या टोनही का प्रकोप बताकर न जाने बैगा गुनियां तरह तरह से तंत्र –मंत्र किया करते थे पर उससे मुझे कभी फायदा हुआ हो याद नही, ताज्जुब की बात ये है कि ये हालत सिर्फ गांवो में ही नही शहरो में भी पुरी तरह इसकी चपेट में है


     कई गांवो में दलित,विधवा,परित्यक्ता महिलाओं को टोनही या चुडैल साबित कर भरे पंचायत के सामने नंगा कर गांवभर में घुमाया जाना समाज के एक नाकारात्मक मनोविज्ञान को ही परिभाषित करती है आजादी के बाद तरक्की के दंभ भरने से पहले इस तरह की घटनाओं और उसके मनोवैज्ञानिक पहलूओं की अच्छी तरह जांच पडताल करना अति आवश्यक है क्या कारण है कि पिछडे और दबे कुचले समुदाय कि स्त्रियां ही इसका शिकार होती है किसी सभ्रांत परिवार की महिलाओं के साथ ऐसा कभी हुआ हो ये मैने आज तक न देखा न सुना।


    एक तरफ हम विज्ञान की बांह थामें तरक्की कि सीढ़ीयों पर लगातार चढ़ते जा रहे है वही दुसरी ओर इस तरह की तंत्र-मंत्र का अंधविश्वासी खेल भी कुछ कम नही हुआ है अब तो ये गांव,कस्बे से होते हुए शहरों में भी गहरी पैठ बना चुका है.टेलीविज़न माध्यम भी इसमें कम जिम्मेंदार नही है जादू-टोने ,तंत्र-मंत्र से भरे कार्यक्रमो की आज हर चैनल में भरमार है डरा-डरा कर ताबिज़ और नग-नगिने बेचने वालो को तकरीबन हर चैनलों में देखा जा सकता है चैनलो में अब समाज के प्रति नैतिक जिम्मेंदारी नही बची है जिसे इन कामो के प्रति लोगो को सचेत करना चाहिए वही आज इस जैसे तंत्र-मंत्र को तरजीह देकर रंग बिरंगे तरीके से लोगो के सामने पेश करेंगें तो इस देश का बंटाधार होने से कोई नही बचा सकता । कुछ भी हो हम इस तरह के चीजो के प्रति अशिक्षा का रोना रो कर अपना पलडा झाड़ लेते है कि जब तक लोग शिक्षित नही होंगे इस तरह की चीज होती रहेगी ,और अपनी नैतिक जिम्मेंदारीयो से मुक्त हो जाते है आखिर ये सब कब तक चलता रहेगा कब तक हमें इस तरह की खबरों से दो चार होना पड़ेगा ।


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मंगलवार, 1 जून 2010

क्या यही है इक्कसवीं सदी का भारत



भूत-बाबा  का मंदिर जहां भूत भगाने जैसा पाखंड आज भी जारी है 


मध्यप्रदेश के नीमच से तकरीबन 35 किलोमीटर दूर एक ख़ास जगह है जिसे आस पास के इलाके के लोग भूत-बाबाजी के नाम से जानते है । अगर आपको लगता है कि ये कोई डर वाली जगह है तो आपका ख्याल बिल्कुल गलत है क्योकि यहां भूत नही बल्कि भूत के डर से मुक्ति मिलती है या यूं कहे कि जिन लोगो को भूत जिन्न वैगरह परेशान करते रहते है वे यहां इससे छुटकार पाने आते है । कहा जाता है कि यहां भूतों का मेला भी लगता है तरह तरह के भूत उतारे जाते है यहां । दूर-दूर से लोग मुश्किलों भरा सफर कर यहां एक ख़ास दरबार में हाजिरी लगाने आते है । चाहे आप किसी प्रेतबाधा से परेशान है या  किसी खतरनाक बीमारी ने घेर रखा है या फिर बरसों से आपके घर में किलकारियां नही गूंजी हो, इस प्रकार की हर तरह की तकलीफों का ईलाज होता है यहां,वह भी एक खास तरीके से । यहां आने वाले लोगों की माने तो उनकी कई परेशानियां सिर्फ यहा दस्तक देने भर से ख़त्म हो जाती है उनका मानना है कि भूत बाबा उनके हर परेशानियों को दूर कर देंगे और उनके घर में चारो ओर खुशियां ही खुशियां होगी।
मंदिर का ही एक पुजारी भूत-बाबा के रुप में लोगो के परेशानियों को दूर करने का जरिया बनता है उनका मानना है कि किसी खास दिन खास समय पर एक जिन्न उनके शरीर पर दाखिल होता है जिसके बाद वो यहां आने वाले हर परेशान आदमी का इलाज करने लगते है, इलाज का तरीका भी अपने आप में नायाब है,धुपदान में सुलगते कंडे पर पहले खुद वो अपना पाँव सेकते है फिर पाँव को आदमी के शरीर के उस हिस्सें में रखा जाता है जिससे उसकी परेशानी जुड़ी हो। 
ये जिन्न कौन है इसको भी  लेकर इलाके में एक कहानी प्रचलित है,तकरीबन 500 साल पहले इलाके में एक राजपुत समाज के व्यक्ति थे,जो इलाके के दुःखी और परेशान लोगो की मदद किया करते थे एक दिन अचानक अकस्मात उनकी मृत्यु हो गई जिसके बाद से उनकी आत्मा इलाके में भटकने लगी और अब वही आत्मा भूत-बाबा के उपर आ कर लोगों को कष्टो से निज़ात दिलाती है
भूत-बाबा के दरबार में लोग दूर-दूर से आते है इनमें से कितने यहां आकर ठीक हो पाते है कितने केवल भ्रम का शिकार होते है कह पाना मुश्किल है,अंधविश्वास की जड़ किस हद तक इस इलाके में है जिसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अभी भी लोग डाक्टर के पास जाने से पहले इसी भूत-बाबा की शरण में आते है ।


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बुधवार, 26 मई 2010

जरा हट के ...

ये सिर्फ और सिर्फ  इंडिया में ही संभव है
















भई गरमी से सिर्फ आप ही परेशान नहीं है
















भई कर्ज तो उतारना पढ़ेगा ही

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रविवार, 11 अप्रैल 2010

नक्सल समस्या - ख़त्म करनी होगी असली जड़

आज़ादी के 62 साल बाद भी समाजिक, आर्थिक नीतियों के चलते हिन्दुस्तान का एक बहुत बड़ा हिस्सा लगभग 70 प्रतिशत लोग आज भी हाशिए पर जीने को मज़बुर है जिनके सरोकारो की चिंता न सरकारो को रही न ही नीतियों को न व्यवस्थापिका को न ही कार्यपालिका को रही,और तो और न्यायपालिका भी हमेशा मौन ही रही है । दुनिया भर में रोज़ भूखे सोने वालो में से एक तिहाई से ज्यादा हिस्सा हिन्दुस्तान का ही है आज़ादी के इतने वर्षो बाद भी क्या हम उन लोगों के प्रति न्याय कर पाऐं है जो वास्तव में न्याय के हक़दार है। आज लगभग 90 करोड़ हिन्दुस्तानी ऐसे है जिनकी दैनिक आमदनी 20 रुपयें से भी कम है इन लोगो की चिंता किए बिना चंद मुठ्ठी भर पुंजीपतियों के पीछे भागने भर से काम नही बनने वाला । अराजकतावादी दृष्टिकोण और शासन की नीतियों से पैदा हुए विक्षोभ को निजी स्वार्थो के लिए संकीर्णता पर आधारित होकर के इसका उपयोग करने का तरीका ही नक्सलवाद को जन्म देता है बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे सामाजिक स्थितीयां बदल जाऐगी ?
       देश में आज लगभग 9 राज्यों के 2000 से अधिक जिले नक्सल समस्या से  प्रभावित है और तक़रीबन सभी जिलों में आज भी विकास की नाम पर सारे आंकडे सिर्फ फाईलों में ही बंद है, आदिवासी इलाकों में तो स्थिति और भी भयावह है इस स्थिति को सुधारने के लिए हमारे संविधान में भी ख़ास प्रावधान रखा गया। पंचायती राज कानून और पेसा-1996 कानून इसी उद्देश्य को लेकर लागू किया गया, जो ये सुनिश्चित करता है कि इन ग्रामीण बहुल्य और आदिवासी इलाको में विकास की किरण सही ढंग से पहुंच सके। विकास के मायने इन क्षेत्रों में इनके जीवन से संबंध रखता है अगर इन इलाकों के प्राकृतिक संसाधनो का हम सिर्फ दोहन करते रहेंगे जिसका स्वार्थवश पुरा फायदा कुछ पुंजीपतियों को मिलता रहे और इनके बदले वहा के बाशिंदो को कुछ नही मिले, तो जाहिर तौर पर अंसतोष तो ऊपजेगा ही ,यहां के खनिज सम्पदा से बनी हुई चीज़ो से विकास के मायने तय नहीं किये जा सकते मसलन आयरन , बाक्साईड से हम हवाईजहाज बेशक बना ले पर हमें ये नहीं भुलना चाहिए कि इन जहाजों में कोई भी आदिवासी सैर नही करने वाला । विकास का रास्ता सही मायने इन जंगली इलाको में पीने का स्वच्छ पानी, भोजन,स्वास्थ सुविधाऐं, सड़क आदि से होकर ही गुजरेगा अब भी समय है कि पुंजीपतियों की ख़ातिरदारी बंद कर सही विकास उन लोगो तक पहुंचाए जो इस विकास की आस में अब भी बैठे हुए है नहीं तो कुछ हिंसावादी लोग उन तक आऐंगे और उनसे कहेंगें की देखो ज़मुरियत ने आपको ये सब  नही दिया जो आपका अधिकार है मेरे पास बंदुक है आप मेरे पीछे चलिए हम इस सरकार को सबक सिखायेंगें और इस तरह नक्सलवाद पनपने का सिलसिला लगातार चलता रहेगा ।
      2008 में प्लानिंग कमीशन द्वारा तैयार कि गई एक रिर्पोट पर नज़र डाले तो दो बातें मुख्य रुप से उभर कर सामने आती है कि इन नक्सल प्रभावित इलाको में सुरक्षाबल को कैसे मज़बुत किया जाए,दुसरा कि पंचायती राज कानून को कैसे और अच्छी तरह ईमानदारी से अम्लीज़ामा पहनाई जाऐं,जब तक वहां के लोगो में सरकार अपना विश्वास नहीं बना पायेगी तब तक इस समस्या का हल दूर दूर तक नज़र नहीं आता ,वहां के लोगो को खुद अपने विकास के लिए आगे आने के लिए प्रेरित करना पड़ेगा नौकरशाही से हटकर इन आदिवासीयों को अपनी प्राथमिकताएं तय करने के लिए पुरी छूट और पुरा सहयोग देना होगा जिन इलाको में नक्सल समस्या थोड़ी कम है वहां विकास के इतने मिशाल कायम करने होगें जिससे उनमें ये विश्वास कायम हो सके कि लोकतांत्रिक समाज में ही रहकर वे अपना जीवन स्तर सुधार सकते है साथ ही साथ जंगली इलाको में इंडियन फारेस्ट सर्विस के अधिकारियों की और कर्मचारियों को भी अपना काम और अधिक ईमानदारी और सूचितापूर्वक करना पड़ेगा क्योकि आदिवासी परोक्ष रुप से इसी जंगल पर ही निर्भर रहते है
        नक्सलियों द्वारा पटरी उखाड़ फेकना,सड़क बिजली को नुकसान पहुंचाना,निश्चित तौर पर ये उनके मंसुबे को जाहिर करता है कि वे विकास के पक्षधर कतई नहीं है फिर आख़िर मसला क्या है, नक्सलियों के इरादें क्या है, क्यों युवा इन लोगो के साथ शामिल होते जा रहे है स्थानीय लोग क्यों इनका मौन सहमति के साथ शुर में शुर मिलाते है सलवा जुडुम जैसे स्वस्फूर्त आंदोलन को छोड़ दिया जाए तो इक्का दुक्का ही संगठन सामने आते है जो नक्सली आंदोलन का डटकर सामना कर रहे हो । हिंसा के बल पर इस समस्या को कभी ख़त्म नहीं किया जा सकता सरकार द्वारा सैनिक बलों के प्रयोग से माहौल और बिगड़ सकता है,ये समस्या हमारें घर की है हमला हमारे अपनो द्वारा अपने ही घर के आंगन में किया जा रहा है हमें ये सोचना ही होगा कि इस लड़ाई मे आखिर बलि किसकी चढ़ रही है मर कौन रहा है । भटके हुए युवा नक्सलियों में शामिल होकर किसका नरसंहार कर रहे है वे किसे मार रहे है बेगुनाहों की हत्या कर देने से कोई क्रांत्रि का रास्ता प्रशस्त नहीं होने वाला, जो इन माओवादियों द्वारा किया जा रहा है ,मरने वालो लोगो के परिवार वालो की आत्मा क्या कभी इसे स्वीकार कर पायेगी । रही बात इस समस्या के समाधान की तो इसका एकमात्र विकल्प सिर्फ संवाद ही है इतिहास गवाह है कि बडे से बड़े समस्या का समाधान संवाद के माध्यम से हल किया जा सकता है । सरकार द्वारा पहल कर नक्सलियों से संवाद का रास्ता ढूंढना ही होगा ,साथ ही साथ उन क्षेत्रों में विकास की किरण ईमानदारी से पहुंचानी ही होगी जो आज तक विकास से वंचित रहे ,ताकि हमें कल और किसी के घर से रोने की आवाज़ न सुननी पड़े ।

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